उम्र के हादसों में जीवन।।
हम दुआ करते हैं कि कुछ हुआ ना हो जाए,
बहुत तशरीफ़े करी है कि यादों का महल बुढ़ा ना हो जाए,
याद यही आता है अगर उम्र का एक पड़ाव निकले तो उम्र का खाली असर ना हो जाए,
बहुत उम्मीदें थीं कि उम्र के अनुसार उम्र ना रहूं,
मुलाकात करूं किसी से तो मेरी उम्र के खातिर मेरी हंसी बदनाम ना हो जाए,
आज भी लोट सकूं जमीन पर,
बढ़ती उम्र के साथ जमीन का लिहाज ना हो जाए,
उम्र को कहो कि मेरे जाने के बाद आए,
मैं आसान राहों में आसान ही रहूं,
मेरी उम्र के खातिर किसी का दिल बेईमान ना हो जाए,
हर बात खुलकर वह कह सके,
यह है हर उम्र के लिए जरूरी है,
आप अनुभव के खातिर,
सच्चा जो जीवन है उसे गंवा देते हो,
आप क्या थे भुला देते हो,
और उन्हीं प्रश्नों में उलझ जाते हो,
जो आपकी उम्र का लिहाज करते,
क्या सच्ची में वह आप के लिए उत्तरों का रिहाज करते हैं,
इसलिए जितना अपने आपको अनजान रखोगे,
उतना ही उम्र से हटकर जान सकोगे,
जीवन है इसलिए सब का संतुलन चाहिए,
पर आप क्या है यह सिर्फ आपके लफ्जों में आपके लिए कुछ आसान शब्द चाहिए,
वह यह ना कहे कि तुम वही हो जिसे हम बचपन में ढूंढ रहे थे,
आज तुम निराश हताश और प्यासे सिर्फ अपने बचपन को ढूंढ रहे हो,
और तुम्हारी उम्र ने तुम्हें हर वह चीज करने से रोक दिया,
जिसकी तलाश हर व्यक्ति के हृदय में,
बिना यह सोचे कि हर वह शक्स जो उम्र के तराजू में तोला है,
क्या वह स्वयं के लिए कुछ शब्द बोला है,
आपके पास कुछ गिनती ओं का ही एक झोला,
आपका हित आपके लिए कम आपकी उम्र के लिए ज्यादा बोला है,
यह बताओ अब खून कितना खोला है,
संघर्ष हर बार काम नहीं आता,
यह जीवन का नाम ही भोला है,
आप संघर्ष तब ही करते हो,
जब आपको लगता है,
आपका ही अस्तित्व में ठहरा है,
संघर्ष की कीमत यही है,
आपसे वह ऐसी चीजें ले लेता है,
जिसके लिए आप आए थे,
आपका बचपन आपकी जवानी आपके अनुभव के दिन और आपका हताशा लटकता हुआ चेहरा,
बस और क्या था,
आप मिलोगे आप ही मिटाओगे,
अपने ही हाथ से इस जीवन को धीरे-धीरे हट आओगे,
क्या कभी इस उम्र से निकलकर अपने जीवन में आओगे,
एक पढ़ा-लिखा चेहरा नहीं बस वह बदमाशी करता,
घुट चुका अपना अस्तित्व पाओगे,
क्या तुम अपने संयम से बाहर आओगे।।
- ललित दाधीच