धीरे-धीरे उतरती है रात,
सन्नाटे में छिपे होते हैं जज़्बात।
नभ की चादर काली स्याही सी लगती,
पर उसमें चाँदनी की चुप रोशनी जगती।
चाँद की चुप मुस्कान में कुछ राज़ हैं,
हर किरण में छुपे हज़ार आवाज़ हैं।
धीमी हवा जब बालों से खेले,
तो लगता है कोई सपनों में झूले।
रात्रि है तनहा, पर चाँदनी संग है,
हर तन्हाई में उसका कोई रंग है।
शांत है, मगर भावों से भरी,
जैसे कोई नायिका हो चुपचाप डरी।
चाँदनी बिखरती है पेड़ों की शाखों पर,
जैसे किसी ने छू लिया हो प्रेम भर।
झील भी उसे निहारती है चुपचाप,
मन का कोना भी हो जाता है साफ़।
रात्रि और चाँदनी — एक गीत है अनकहा,
जिसे सुनते हैं दिल, आँखें और हवा।
इक कविता है ये दोनों मिलकर बनी,
शब्दों से नहीं — सिर्फ़ एहसासों से कही।