तुमने तोड़ने का फ़न भी, बड़े करीने से सीखा था…”
तुमने तोड़ने का फ़न भी, बड़े करीने से सीखा था,
मैंने सहने का हुनर, रूह के ज़ीने से सीखा था।
तुम्हारे जहर ने सींचा मुझे, फूल की तरह नहीं,
मैंने जलना तब सीखा, जब पानी भी छीना था।
हर ताना, हर चुप्पी, हर तिरस्कार तुम्हारा
मेरी आत्मा का रक्त था— जिसे मैंने पीना था।
जो प्यार था कभी तुमसे, वो अब एक शव है,
जिसे मैंने अपने ही सीने में दफ़्न कर लेना था।
आर्थिक तौर पे तो मैं पहले ही आज़ाद थी,
मगर दिल… वो तो अब जाकर मेरा होना था।
तुमने जो नफ़रत दी, वो मेरे भीतर पूजा बन गई,
तुमने जो ठोकर दी, उससे मेरा शिव जागा था।
अब मत कहना कि मैंने तुम्हें छोड़ दिया,
तुमने ही मुझे ख़ुद से तोड़ दिया— ये तुमसे बेहतर कौन जानता था।