जो करना था,
वो कर लिया…
सच को छाना,
झूठ को गूँथा,
भीतर की चुप्पी को
तालियों में ढूंढा।
अपना आप घिस दिया
दूसरों के आईनों में —
अब बस,
रुक जाते हैं!
संधियों में विश्वास किया,
घातों में गीत लिखा,
जिसको आँसुओं से सींचा —
उसी ने ख़ुश्क ज़मीन पर
हंस कर बीज फेंक दिया।
अब सोचते हैं —
क्या ज़रूरत थी?
घर जलाया, लोग बुलाए,
बोले — “कितना उजाला है!”
अंदर की राख उड़ती रही,
कहते रहे — “ये तो बस हल्का धुआँ है!”
अब क्या करें?
जो करना था —
वो कर लिया!
मन को समझाया,
दर्पण को डराया,
ईश्वर से पूछा —
“क्या तुम भी चुप हो या मैं बहरा हूँ?”
अब बस —
थक गए हैं!
चलते रहे,
टूटते रहे,
हर मोड़ पर नया “सबक़” लिया,
पर वो पुरानी मासूमियत
कभी वापस नहीं आई।
तो अब बस —
मौन हो जाते हैं।
ना कुछ कहना है,
ना सुनना है,
ना जीतने की भूख,
ना हार का हिसाब।
जो करना था —
वो कर लिया!
अब अंतिम काम यही है —
कि ख़ुद को
किसी “काम” में न डालें।
अब बस —
रुक जाते हैं।
ताकि कोई पूछे तो कह सकें —
“हाँ, मैं अब कुछ नहीं कर रहा…
और ये सबसे बड़ा काम है
जो मैंने कभी किया।”