मेरे पिता अपने जैसे थे, फिर मेरे जैसे हो गए..
कुछ फिक्रों संग उठे, कुछ फिक्रों संग सो गए..।
भीतर थे जो आंसू उनके, वो अंतर्मन में बह गए..
बाहर जो गिरे तो उनको, मुस्कुराहटों में पिरो गए..।
रात–भर वो चलते रहे, अंधियारों का दामन थामे..
सुबह के उजियारे में, फिर सितारों संग खो गए..।
हम तो कभी हाथ भी उनका, सलीके से न थाम सके..
और वो ज़मानेभर का बोझ, अकेले कांधों पर ढो गए..।
उनकी हर एक हिदायत थी, अंधेरों में शमां की मानिंद..
कई दफ़ा सहरा में भी, बादल बनकर तन मन मेरा भिगो गए..।
पवन कुमार "क्षितिज"