ऐसी बगिया भी होती थी
सुन्दर सुमन खिला करते थे
पेड़ों की तरुणाई में जब
पढ़ा और लिखा करते थे
वही बैठकर बातें होती
दुनिया जहाँ का मेला होता
धुप छाँव के रेले में जब
सूरज को बादल घेरा करते थे
अब तो कुछ न व्याप्त है वैसा
न वो बगिया न ही कुसुमदल
प्रकृति पर न्योछावर जैसे थे
ऐसे प्राणी हुआ करते थे
----डॉ कृतिका सिंह