वो लड़की थी
जो रोई नहीं कभी,
बस भीगती रही —
भीतर, चुपचाप।
उसके हिस्से की धूप
किसी और की खिड़की में जा गिरी थी,
और हवा?
उसे तो रास्ता भी याद नहीं था
उस देह तक,
जो मिट्टी से भी हल्की थी।
उसने सपने नहीं बोए —
उसने
ज़मीन के भीतर
सिर्फ़ साँसें दफ़न कीं,
हर साँस में
एक छोटा-सा वचन था:
“मैं जिऊँगी।”
वो ना टूटी
ना झुकी,
बस धीरे-धीरे
पत्थर को सहती रही —
जैसे कोई औरत
अपने ही घर में
हर दिन एक नया जन्म लेती है
और कोई नहीं जानता।
फिर एक सुबह —
जब कोई कारण नहीं था
खिलने का,
ना कोई ऋतु,
ना कोई कविता,
ना कोई प्रेम…
तब उसने
पत्थर को चीर दिया।
ना युद्ध में जीती,
ना किसी ताली में…
बस उगी —
जैसे आँसू उगते हैं
नींद के गीले किनारे पर।
अब जब तुम उसे देखते हो
हरी, सुंदर,
तो भूल जाते हो
कि वो लड़की
कभी
पत्थर के नीचे थी।