मैंने तेरे लिए
न आरती लिखी,
न कोई वेद-श्लोक,
न ही मस्जिद के साए में
सिजदे किए…
मैं बस
एक अधूरी नज़्म में बैठा —
और तुझसे कहा —
“आ, कुछ कह… या बस चुप रह।”
तू रब था —
तेरे नाम पर मंदिर उठे,
मजारें रोशन हुईं,
पर मैं
तेरे किसी नाम से जुड़ नहीं पाया।
फिर
एक रात
शब्दों की रूह में
तू उतर आया —
जैसे किसी टूटी हुई पंक्ति में
धड़कता हो इश्क़ का ईश्वर।
मैंने तेरी आराधना नहीं की,
सिर्फ लिखा —
तेरे होने की गंध को,
तेरे न होने के शोर को,
तेरे मौन के आकाश को।
और तब जाना —
तू रब था,
पर मैंने तुझे
इक नज़्म में पाया।
वो नज़्म —
जो किसी किताब में नहीं,
मेरी रूह की कोर में लिखी गई थी —
तेरे नाम के बिना,
पर सिर्फ़ तेरे लिए।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड