आदमी आदमी ना हुआ,
नाउटंकी हो गया,
लगता है कहीं से टूटी हुई टंकी
या छटंकी हो गया।
जीवन की सच्चाई से,
भागते, हैं लोग दौड़ते,
सपनों की उड़ान को,
भूलते, भ्रम में ही खो जाते।
अपनी जिम्मेदारियों से,
बचकर, भाग रहे हैं सब,
आदमी बनने का अर्थ खो चुके,
बन गए हैं सब नाउटंकी।
सच का साथ न चलते,
प्रेम का आधार भूलते,
झूले हैं झूलने वाले,
जिस्मानी सुखों में मगन।
स्वार्थ की भूलभुलैयाओं में,
खो गए हैं विश्वास,
नाउटंकी के पर्दे में,
छिपाये हैं अपने वास्तविक रंग।
समय की धारा में बहते,
बदल गयीं हैं धरोहरें,
आदमी आदमी ना हुआ,
नाउटंकी हो गया।
हर एक कदम पर नयी राह,
नए अंदाज़ में चलना है,
सच्चाई के पथ पर,
अपनी पहचान ढूंढना है,
आदमी बनने का संघर्ष,
खुद को पहचानना है,
नाउटंकी के पर्दे को उठाकर,
सच्चाई का सामना करना है।
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)