जिन्हें जितना मिला, वो उतना ही रोए,
जिनके पास सब था, वो और भी खोए।
कभी तक़दीर को गरियाया, कभी भगवान को कोसा,
खुशियों की चादर में भी छेद ही बोए।
ना शुक्र लोग, अजब ही तमाशा,
हर बात पे शिकवा, हर बात पे नाशा।
धूप भी मिली तो परछाई ग़ायब,
चाँद भी पाया तो रातें उदासी से बासी।
रोटियाँ थीं, मगर स्वाद नहीं आया,
चूल्हे थे जलते, पर आग नहीं पाया।
जो था, उसे छोड़कर दौड़ते रहे,
ना मिला तो बोले—‘हाय! खुदा ने लूटा हमारा साया।’
शुक्र करने में क्या जाता था भला?
ज़िंदगी भी मेहरबान होती, वक़्त भी मिला।
मगर ये तो अपनी ही धुन में रहे,
हर लम्हे को जलाया, हर रिश्ते को गला दिया।
शारदा कहे— इनसे मत उम्मीद कर,
जो खुद से ही हारे, वो तुझसे क्या प्यार करें?
जिन्हें सुकूँ न मिला अपने ही वजूद में,
वो औरों को क्या उजियार करें?