हर सपना मृगतृष्णा की तरह,
कभी पास अभी दूर लगता।
प्रेम उगती हुई दूब की तरह,
पगडंडी के किनारे हरा लगता।
अहंकार की चट्टानें आ जाती,
तब तब रास्ते को नजर लगता।
मन का भूगोल समझाएंगा कौन,
स्कूली किताब को डर लगता।
हर दरार हर तह को स्पर्श कर,
धीरे-धीरे जान पाना सरल लगता।
मौन प्रेम की समाधि है 'उपदेश',
आलिंगन ही उसका हल लगता।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद