मै जाग रही थी ।।
बात तब की है
बेचैन मन,नींद आंखों में न थीं
बात तब कि हैं
मै जाग रही थी ।।
बहुत सारी वेदना
और थी कुछ संवेदना
जीवन के इस भंवर में
क्यों? मेरी नैया डूब रही थी
मै जाग रही थी ।।
ज्वार प्रचंड भंवर में
वेग धारा विपरीत थी
खेनी हैं मुझे खुद नैया
फिर क्यों विचलित थी
मै जाग रही थी ।।
किनारा नजर न आ रहा
आधी रात ढल चुकी थी
जाऊ तो किधर जाऊं
बीच मझधार में फस चुकी थी
मैं जाग रही थी ।।
आया एक ख्याल
ज्वार प्रचंड भंवर में
वेग धारा विपरीत नही मेरे
मै विपरीत जा रही थी
मैं जाग रही थी।।
----दीपा सहाय