जफा़ ए जख्मों की, कहानी कहती है।
लाखों की भीड़ में, अकेली होती है।
दिन के उजाले में मुस्कुराकर,
रातों को रोती है।
घुटती है,
जिस्म के अंदर
न जाने कितने मंजर सहती है।
जफाऐं इतनी लिखी है, रूह पर।
वो हर कलम को खंजर कहती है।
चिखती -चिल्लाती वीरानों में,
कभी घर में बंद रहती है।
कोरे पन्नों पर स्याही,
भावनाएं हासिए पर होती हैं।
पकड कर पर्दो की बैसाखियां,
रोज इंसानियत की दहलीज पर बैठकर,
हंसती रोती है।