"ग़ज़ल"
मैं हर दौर में तिरा दीवाना बहर-हाल बना!
कभी मजनूॅं कभी राॅंझा कभी महिवाल बना!!
प्यार के दुश्मनों के लिए मैं सर-दर्द रहा!
कभी जुनूॅं कभी हिम्मत कभी मजाल बना!!
दुनिया वालों ने ढाए ज़ुल्म-ओ-सितम मुझ पे!
तिरे सदक़े! मैं तिरा आशिक़-ए-बद-हाल बना!!
ख़ुदा ने तमाम हुस्न इकट्ठा किया तब जा कर!
कहीं तू बनी तिरा हुस्न-ओ-जमाल बना!!
दे नहीं पाए जिस का जवाब ये ज़माने वाले!
मैं हर बार लोगों के लिए ऐसा इक सवाल बना!!
न जाने कौन सी ग़लती हुई ख़ुदाया मुझ से!
मिरा उरूज ही इक दिन मिरा ज़वाल बना!!
उन पे ग़ज़ल कह सकूॅं बस इसी ख़ातिर 'परवेज़'!
कभी मोमिन कभी ग़ालिब कभी इक़बाल बना!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad