"ग़ज़ल"
भीख माॅंग कर जीने वाले और चंदों पे पलने वाले!
बड़े मजबूर होते हैं ग़ुर्बत की आग में जलने वाले!!
अमीरों के क़दम तो ज़मीन पर पड़ते ही नहीं!
वो क्या जाने क्या क्या सहते हैं काॅंटों पे चलने वाले!!
किस उम्मीद पे जिए जा रहे ये नसीब के मारे?
इन से कह दो इन के मुक़द्दर कभी नहीं बदलने वाले!!
ग़रीबी के पौधों को चाहे ख़ून से सींचो या पसीने से!
ये वो पौधे हैं जो कभी नहीं फूलने-फलने वाले!!
हम ने तो अरमानों का गला घोंट कर जीना सीखा है!
इन का क्या ये तो फ़ितरतन होते हैं मचलने वाले!!
'परवेज़' वो हमें आ के सॅंभाले तो सॅंभाले वरना!
उस की मोहब्बत में मदहोश हम कहाॅं हैं सॅंभलने वाले!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad