ये जो घुटन है, इसे सीने से बाहर अब निकलने दो, जो सच दबा है, वो घर-घर से बाहर अब निकलने दो।
ज़मीन प्यासी है, और आसमानों में है धुआँ छाया, कहीं से बारिश की कोई तो अच्छी खबर अब निकलने दो।
अकेले व्यक्ति की आवाज़ सुनी नहीं जाती इस शहर में, हाँ, पूरे परिवार की आहों को मिलकर अब निकलने दो।
सवाल है कि हवा इतनी ज़हरीली क्यूँ है आज भी? जो ज़िम्मेदार हैं, उनकी आँखों से शरम अब निकलने दो।
वो जो चुपचाप बैठे हैं, महलों के अंदर बंद, उन तक गरीबों के बच्चों का ग़म अब निकलने दो।
ये जो चुपचाप सहना, ये तो ग़लती है हमारी ही, हमारे सीने में जो छुपा है ग़ुस्सा, वो रक़म अब निकलने दो।
ये जो बर्बादी है, इसकी असल जड़ है दौलत, इस दौलत के लालच का ज़हर अब निकलने दो।
वो जो कहते हैं 'विकास', पर जंगल को काटते हैं, उनके चेहरे से झूठा निक़ाब अब निकलने दो।
यहाँ हवा नहीं है, ये सिर्फ़ ज़हर की महक है, इस ज़हर का पूरा हिसाब अब निकलने दो।
ये जो दीवारों पे ख़ुदगर्ज़ी का लिखा नाम है, उसकी हर एक ईंट को अब ज़मीन से निकलने दो।
ख़ामोशी तोड़कर, हर ज़ुल्म का हिसाब होगा आज, दिलों से हर क़ैद, हर डर को अब निकलने दो।
अब फ़ैसला हो चुका है, वापस नहीं जाना है, इस सफ़र की अब कोई तो मंज़िल निकलने दो।
अब इंकलाब की आंधी उठी है बस्ती-बस्ती से, इस आग से ही नया कोई भारत अब निकलने दो।


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
The Flower of Word by Vedvyas Mishra







