"मैं"
उलझनें हैं बहुत,
सुलझा लिया करती हूँ
फोटो खिंचवाते वक़्त मैं अक्सर,
मुस्कुरा दिया करती हूँ ।
क्यों नुमाइश करूँ
मैं अपने माथे पर शिकन की,
मैं अक्सर मुस्कुरा के
इन्हें मीटा दिया करती हूँ ।
क्योंकि.... जब लड़ना पड़ता हैं,
खुद को खुद ही से, तो हार और जीत में
कोई फर्क नहीं रखती हूँ,
हारूं या जीतू कोई रंज नहीं हैं।
कभी खुद को जीता देती हूँ,
कभी खुद ही जीत जाती हूँ
इसलिए भी मुस्कुरा दिया करती हूँ।
रचनाकार- पल्लवी श्रीवास्तव
ममरखा, अरेराज.. पूर्वी चंपारण (बिहार)