कितनी आंधियां हैं ?
कितने तूफ़ान हैं ?
ऐसे में वो जगह खड़े हम जहां,
वो भी कितनी अनजान है ?
क्या हवा है ?
क्या समा है ?
ये जो है सामने मेरे मंज़र,
इसका क्या मज़ा है ?
हमारे माथे पर पानी की बूॅंदें हैं
और है सुरज भी,
दूर कहीं क्षितिज पर काले बादल हैं
और है इन्द्रधनुष भी।
जो भी है बड़ा सुहाना है,
गा रहा ये मौसम कोई गाना है।
इस इन्द्रधनुष के बीच बादल ऐसे सजे
मानो पहाड़ी से धारा बह रही हो।
और पास मेरे हवा की ऐसी सरगोशी
कि मानो वो मुझसे कुछ कह रही है।
लगता है आज ये मौसम भी
मेरे लिए ही बदला है,
लगता है आज ये बरसात भी
मेरे लिए ही हुई है।
इस अनजानी भीड़ में तन्हा ना समझूं मैं खुद को,
इसीलिए शायद आज ये हवा भी
मेरे लिए ही चली है।
आज उस इन्द्रधनुष को मैं
बिना पलकें झपकाए निहारे जा रही थी,
ऐसा लग रहा था मानो वो भी मुझे देख रहा हो।
आज बड़ी देर तक ठहरा वो अक्सर इतनी देर
ठहरता नहीं है,
मानो कि मुझसे दोस्ती करने की सोच रहा हो।
~ रीना कुमारी प्रजापत