एक मैं हूँ
एक काया है
कभी कभी मैं
खो जाता हूँ
काया के गहरे
मायाजाल में
कभी कभी
मैं का तूफान मुझे
बना देता है हैवान
मैं की प्रचंड आंधी
में उड़ता हूँ मैं
असमान की
दूरतम ऊँचाइयों में
और टूटता है जो
मैं का सहारा सारा
मैं गिरता हूँ
होने और न होने
के क्षितिज पर
जहाँ दूर दूर तक
मैं ही मैं बिखरें है
और दूसरी ओर
शुन्य की असीमता
मैं हूँ
और नहीं होने
की इस माया में
मैं भूल जाता हूँ
मैं कहाँ हूँ
मैं कौन हूँ
क्या मैं असीम का
ही विस्तार हूँ
या सिर्फ मैं का ही
बोध हूँ
या उस विशालतम मैं
में उतरता मैं
अपनी मैं का बोझ हूँ
मैं क्षितिज पर खड़ा
कौन हूँ