जिंदगी की बिसात पर कैसे चलीं हैं तूने ये दांव l
गुल से रस्ता ढँक दिया है थकने लगे हैँ मेरे पांव l
नहीं सहज है रिश्ते सारे छिछले हर ज़ज्बात हैं,
कुछ पाए हैं कुछ खोए जब पहुँचे अपने गांव l
जिनको खोजा हम किए सरे राह कूचा और गली,
काट कर सब शाख बैठे अपने रोपे पेड़ों की छांव l
धमा चौकड़ी करते-करते सोया है बच्चा देर से,
भोर से छत के मुंडेरो से कौआ पुकारे कांव कांव l
नहीं धमा धम शोर सुबह की खेत हैं वीरान सा,
शहरों सी अलसाई नशे में डूबा रहता है ये गांव l
दरिया की लहरें ऊंची थीं और हवाएँ थीं पुरजोर
तूफानों से पार निकल कर अब बांधी है मैंने नांव l
जाल है लेकर निकला पर सजग बहुत मछलियां हैं,
तूफ़ाँ मचा देंगीं सब मिल के जैसे उसने बांधी नांव l
आओ सब मिल फूल खिलायें हर घर हर राह में,
दूर फलक पर सूरज डूबा रात में बैठें अपने ठांव l
विजय प्रकाश श्रीवास्तव (c)