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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

क्षण क्षण जन्म लेता हूं

क्षण – क्षण इक जन्म मैं लेता हूं,
जिस जन्म का मैं ही प्रणेता हूं।

(अध्याय 2, श्लोक 22)




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (6)

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अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

Sundar Vachan Geeta Se Hai Kya?

उत्कर्ष कश्यप said

जी हां, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही इस श्लोक का जनमानस में बहुत विकृत रूप हो गया है, इसका असली अर्थ है की जिस प्रकार मनुष्य पुराने, फटे वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार जीवात्मा हर क्षण एक नए शरीर को धारण करती है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है की जीवात्मा में और आत्मा में ज़मीन आसमान का अंतर है किंतु सामान्यता हम जीवा के स्थान पर आत्म शब्द का प्रयोग कर देते है जबकि आत्मा तो हमेशा से है वह किसी पर निर्भर नहीं है, न तो उसका जन्म होता है और न ही मरण वो इस प्रकृति से अछूती है किंतु जीवात्मा प्रकृति का ही स्वरूप है तो मेरी उपर्युक्त कविता इस गलतफहमी को इंगित करती है की जिस आत्मा के स्थानांतरण की बात हम सोचते वो असल में हमारी ही अज्ञानता की रचना है।

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

धन्यवाद आपका इतने उत्तम विचारों के साथ आपने रचना लिखी अज्ञानता वस् उसका सार नहीं समझ पाया था - सार समझाने के लिए आभार

श्रीकांत द्विवेदी said

Satya vachan

रीना कुमारी प्रजापत said

अति उत्तम

Arpita pandey said

Geeta ke shlok ki hum sameekshaa kare esi apni okat nahi

उत्कर्ष कश्यप said

@Arpita pandey, ये आपकी श्रद्धा हो सकती है की आप गीता की समीक्षा को अस्वीकार करें किंतु आपका मन कभी भी बिना समीक्षा के कुछ स्वीकार कर ही नहीं सकता , आप बिना कारण ही भोजन नहीं करते , बिना कारण ही धन एकत्र नही करते आप कुछ भी बिना कारण नहीं करते बल्कि ईश्वर में विश्वास भी बिना किसी ठोस कारण नहीं करते आपको सदैव कुछ चाहिए होता है जैसे ईश्वर से कुछ नही तो फिर भी उनका साथ या आशीर्वाद चाहिए होता है और किसी भी कार्य को करने के लिए एक ठोस कारण के ज्ञान के लिए आपको उस कार्य की समीक्षा भी करनी पड़ती है। ऊपरी मन से आप कुछ भी कहें लेकिन आपका मन जानता है की बिना समीक्षा हम कुछ नही मानते। अगर कोई व्यक्ति गीता की समीक्षा नही करता तो मन कभी उन श्लोकों में नहीं डूबेगा क्योंकि उसके प्रवेश के लिए जो महत्वपूर्ण शर्त है आपने उसे ही वर्जित कर दिया जो है : समीक्षा। बल्कि समीक्षाओं के उपरांत भी ये जरूरी नहीं की आप गीता को अपने जीवन को जीवन बनाने के लिए उपयोग कर ही लें क्योंकि मनुष्य किसी भी पुस्तक या गुरु को नही समझ नही सकता फिर एक ही मार्ग बचता है : आत्मज्ञान , जो मार्ग बुद्ध ने, महावीर स्वामी ने, कबीर आदि ने अपनाया था। अगर किसी के लिए यह मार्ग उचित जान पड़ता है तो यही उचित फिर किसी भी ग्रंथ या गुरु की समीक्षा की आवश्यकता ही नहीं, आपके विचार और प्रतिक्रिया जानने के लिए उत्सुक हूं। धन्यवाद

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