कविता : मेहमान....( ( a.p.)
रात को न कुछ बोले
न कुछ बताए
घर पर मेहमान
चार पांच आए
हो गए बहुत हम
परेशान बड़ी
उनकी सेवा में फिर भी
कसर कुछ न छोड़ी
रात को ही पहुंच गए
सब्जी मंडी बाजार
चिकन मटन पेप्सी जूस न
जाने क्या क्या लाए हजार
उनके लिए व्यवस्था
सब कुछ मिलाया
चौरासी व्यंजन सारा
उनको खिलाया
बाद में फिर आइस क्रीम
जलेबी वो भी खरीद लाया
उन्होंने कुछ न छोड़ा
सारा का सारा वो सब खाया
हम ने सोचा वो सभी
दूसरे दिन तो जाएंगे
चाय नाश्ता खाना - बाना
कुछ भी नहीं खाएंगे
मगर वे लोग तो
चौखटी मार कर
बैठ गए पांच दिन
डेरा ही जमा कर
ऐसे में घर का हालत
बिगड़ गया टोटल
घर... घर न हो कर
बन गया एक होटल
मेहमानों ने खाना भी
पेट में ठूंस ठूंस कर खाया
उन्हें देख कर मन के
भीतर घुसा भी बड़ा आया
पांचवे दिन जा कर मेहमान
बोल पड़े अब हम जाएंगे
चिंता फिकर कुछ न करो
वापस फिर जल्दी आएंगे
चिंता फिकर कुछ न करो
वापस फिर जल्दी आएंगे.......