जैसे जैसे जीवन बीता, आंख से मंजर छूट गया,
गलियाँ छूटी, चौबारे छूटे, गाँव हमारा छूट गया l
सब सूरज के पीछे दौड़े आगे तुम और पीछे हम,
छूटी ताल तलैया सब की,बाग बगीचा छूट गया l
रुपया पैसा और बुलंदी पाने में सब यूँ मशगूल रहे,
रिश्ते-नाते, दया, सदाकत, सब कुछ पीछे छूट गया l
आगे बढ़े तो पथ पथरीले, मरुस्थल जैसे रेत मिले,
कहीं नहीं झरना पानी था, दरिया पीछे छूट गया l
किस जगह रुकी है नांव यहां जाने कैसे लोग यहाँ,
चाहा था जिस जगह रुके वो घाट हमारा छूट गया l
चाहे घूमें मंदिर, गिरजा, काबा घूमें या मदीना भी,
जिस मंदिर में राम हमारे वो मंदिर पीछे छूट गया l
आस लगाए देख रहे हैं सुबह की पौ बस फटने की,
धुन्ध की चादर में लिपटा वो ठौर हमारा छूट गया l
चकाचौंध से पटा शहर है जाल है बस रंगीनी की,
घर वापस जाने का रस्ता पीछे कब का छूट गया l