प्राची के निरभ्र क्षितिज पर,
स्वर्णाभ लालिमा से युक्त,
बालारुण की किरणों को उन,
हिम शैल मालाओं से टकराते,
पर्वताँचल की वनस्पतियों में,
स्वर्णमयी आभा को बिखेर,
स्वर्णिम रथ चलने लगी थी,
उषा स्वागत करने को तत्पर,
निहार रही थी पथ देवता का,
वहीं कहीं प्रभात बाल सम,
किलकारियों से गुंजयमान कर,
आ पहुँचा था प्रकृति के गोद में,
सरोवर तट पर खड़े वृक्ष के,
शाख की लचकदार छोर पर,
आसीन खग देखता एकटक,
दृश्य विस्मय विभोर हो कर,
दिवस के आरंभ बेला का ।
🖊️सुभाष कुमार याद