मैंने
एक दिन
अपनी ही हथेलियों से
ख़ुद को छूकर देखा —
ना कोई ज़ख़्म थे,
ना कोई गुलाब…
बस त्वचा के नीचे
धड़कता हुआ
एक बेआवाज़ सच था।
उँगलियों की पोरों पर
थोड़ी-सी नमी थी —
शायद
वो मेरी ही साँसों का
कोई भूला हुआ स्पर्श रहा होगा।
कई बरसों से
मैं दूसरों की आँखों में
अपना चेहरा तलाशता रहा —
और हर बार
एक अजनबी
लौट आता था।
पर उस दिन
जब मैंने
अपनी ही हथेलियों से
अपने सीने को टटोला —
मुझे एक धड़कन मिली,
जो अब भी
मुझे मेरा नाम लेकर
पुकार रही थी।
मैं चौंका नहीं,
ना ही रोया —
मैं बस
थोड़ी देर तक
अपने हाथों में
बैठा रहा…
जैसे कोई
अपना ही चेहरा
पलकों में सहेज ले।
और तभी
पहली बार
मुझे लगा —
मैं अब भी
ज़िंदा हूँ।
क्योंकि
कभी-कभी
ज़िंदा होना
सिर्फ़ साँस लेने से नहीं —
ख़ुद को
महसूस कर लेने से
साबित होता है।
इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड