अश्रु रज से भर लूं क्या
उर का यह करुण कोषागार।
लुटाती रही आँखें जिस पर
आजीवन अनंत मधुमय प्यार।
गूंज गगन की हिय में झंकृत
बजता मृदंग, मृदुल मल्हार।
खो कर पाया, पा कर खोया
वेदना के अंतस्थ में सुखद विलाप।
वो जो बैठा है दूर तलक
समीप समुंद्र सा बहता ख़्वाब।
पलकों पर आ ठहरी आज
खिलते तारों की शीत बहार।
बंद सीप में मोती लेता
सुंदर सरस सुभग आकार।
अभाव और अति से निर्मित
जगत जीव का अद्भुत संसार।
_ वंदना अग्रवाल "निराली "