तू किसी शाख़ पे था शायद —
जब पत्ते मेरे माथे से यूँ छूकर गुज़रे
जैसे किसी ने बिना पूछे
दुआ दे दी हो।
मैंने हवा से पूछा था —
“ये किसके क़दमों की ख़ुशबू है?”
उसने चुप रहकर
तेरा नाम मेरी धड़कन में रख दिया।
बादल बिखरे थे उस रोज़
कुछ लफ़्ज़ लेकर —
पर बरसते हुए
वो सिर्फ़ तेरा एहसास छोड़ गए।
नदी जब गुज़री पास से,
मैंने सिर्फ़ इतना कहा:
“क्या कभी किसी ने तुझे छूकर
तेरे भीतर अपना नाम बहाया है?”
उसकी चुप्पी में
मेरी तलाश का जवाब डूब गया।
फूलों की पंखुड़ियाँ खुलीं —
बिना मौसम, बिना वजह।
किसी ने तेरे नाम की रौशनी
उन पर बिखेर दी थी शायद।
चाँद उस रात देर तक ठहरा रहा
मेरी आँखों में,
जैसे वो जानता हो
कि कोई है, जो
मुझसे भी ज़्यादा उजला है।
और तू…
हर उस जगह था
जहाँ मैंने तुझे नहीं देखा।
हर उस पल में
जहाँ मैंने तुझे नहीं पुकारा।
ऐ बेआवाज़ रहमत!
मैं तुझसे कुछ नहीं माँगता —
सिर्फ़ एक बार…
अगर कभी तेरा मन हो —
किसी चुप साँस में
मेरे नाम की एक आह भर देना।
मैं जान जाऊँगा —
कि तू वही है
जिसे मेरी रूह
हर जन्म में अनकहे शब्दों से पुकारती आई है।
इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड