रात के सीने पर
एक नींद रख दी थी मैंने —
तेरे नाम की।
वो जागती रही…
जैसे कोई रूह,
जिसे बिस्तर नहीं —
बस प्रार्थना की छत चाहिए।
तेरे मंदिर की सीढ़ियाँ
हर दिन चढ़ता हूँ,
पर तेरी मौन आंखों में
मैं अपनी ही परछाईं देखता हूँ —
टूटती, बहती…
किसी प्रश्न के बिना
किसी उत्तर की तलाश में।
तू भी क्या
कभी मेरी तरह
भीतर से खंडहर हो जाता है?
जहाँ आस्थाएँ
धूल की परतें बनकर गिरती हैं?
तेरे पास सब हैं —
श्रद्धा, भक्ति, आरती, पुष्प…
पर कोई ऐसा नहीं
जो तुझे छूकर कहे —
“मैं हूँ, बस तेरे लिए।”
क्या तेरे भी अंधेरे
तुझसे लिपट कर रोते हैं?
क्या तेरी भी तन्हाई
तेरे कंधे पर सिर रख
सो जाना चाहती है?
प्रभु —
तू भी क्या मेरी तरह
कभी किसी के लिए
‘इंतज़ार’ बना था?
और आज…
बस शब्दों की राख रह गया है?
अगर हाँ…
तो चल,
आज दोनों
एक-दूसरे के मौन में
छुप जाएँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड