विकल बावली बुलबुल व्यथा
सुनी थी कल करुण कथा।
चिर निद्रा में जग कुछ पल
दे स्वप्नों को अपने अरु बल।
युग युगांतर से बजती बीन
स्वर साधती शत शत दीन।
कुंज गली में दौड़ी कल्पना
बिखरी झंकृत राग संवेदना।
रज कण रेणु का क्या पार
मिल गया देखो हास संसार।
असीम सुख हृदय उद्गार
छलकी नयन नीर अपार।
मादक मोहित मुकुल मन
झरता निर्झर निर्जन वन।
चंचल चपल वही पद चाप
लांघता क्षितिज को शीत ताप।
_ वंदना अग्रवाल 'निराली'