कितनी बार
अपने ही आँसुओं की नाव में बैठ
लहरों से जूझा हूँ मैं—
पर हर किनारा
मुझसे पहले ही
खामोशी में डूब गया।
कितनी बार
शब्दों से दीवार बनाई मैंने,
कि शायद उनमें
तेरी झलक ठहर जाए।
पर वे दीवारें
रेत की तरह बिखर गईं—
और हवा
मेरी पुकार चुरा ले गई।
मैं काँच की किरच-सा
हर रोज़ बिखरता हूँ,
और हर टुकड़ा
तेरे नाम का आईना बन जाता है।
मैं पतझड़ का पत्ता हूँ,
जो हवा से पूछता है—
“कौन-सा वृक्ष
मेरा घर था?”
मैं अधूरी रागिनी हूँ,
जिसके स्वर
तेरे बिना
गीत नहीं बन पाते।
कितना टूटूँ और, अनंत?
अब समेट ले मुझे—
जैसे माँ
थके हुए शिशु को
अपने आँचल में छुपा लेती है।
अपने चरणों में टेक दे मुझे—
जैसे थके हारे बिखरे—
परिंदो को
देश-देश भटकने के बाद
आख़िरकार
अपने घोंसले की पहचान
तू ही देता है।
तेरे बिना
मैं रेगिस्तान की प्यास हूँ—
हर दिशा में नख़लिस्तान ढूँढता,
पर लौटकर
सिर्फ़ रेत की जलन पाता हूँ।
तेरे बिना
मैं अधूरा मौन हूँ—
जो बोलना चाहता है,
पर शब्दों में
कोई अर्थ नहीं।
अब और नहीं—
मेरे भीतर की दरारें
आकाश से भी गहरी हो चुकी हैं।
समेट ले मुझे,
तेरे बिना
मैं बस बिखरी हुई परछाईं हूँ।
मुझे मिट्टी बना ले
तेरे दर की—
जहाँ से गुजरने वाला हर पाँव
तेरी ओर बढ़े,
और मेरी धूल
तेरी ख़ुशबू में घुल जाए।
अब मुझे
अपने मौन की गोद में सुला ले—
जहाँ टूटने का शोर नहीं,
जहाँ बिखरने की पीड़ा नहीं,
जहाँ मैं बस
तेरी धड़कन की गूँज बनकर रह जाऊँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर,झारखण्ड