ज़िंदगी अपनी चाल ही चली..
चाहा अनचाहा सबकुछ हुआ..।
मैने तो बहुत कुछ, मन में रखा..
उसने जो मन में था, वही कहा..।
धूल ओ धुंआ, इस कदर है हावी..
फिज़ा से वो, फिर नस नस में बहा..।
ये सारा जहाँ, जो एक बाज़ार बन गया..
सामाँ के साथ, बेचने वाला भी बिका..।
वक्त के नाम पर, अब क्या बाकी रहा..
वो तो हम सबका, हिसाब करके गुज़रा..।
धूप से मेरी इन दिनों, जब सुलह हो गई..
तभी वो देखिए, दिन में एक चांद दिखा..।
पवन कुमार "क्षितिज"