ओ मेरे मन के मालिक
तुम्हें क्या गुलाब दूँ
तुम तो खुद गुलाब हो
मेरे हृदयांगन के उपवन के
तुम को क्या गुलाब दूँ
तुम महकते रहते हो
प्रेम की सुवास लिए
मेरे अंतर्मन में
तुम्हें क्या गुलाब दूँ
तुम लहकते बहकते हो
मेरे ख्यालों की क्यारी में
पल्लवित,पुष्पित होते हो
मुझे भी अपने अहसास से
खिलाते हो गुलाबों से
तुमको क्या गुलाब दूँ
तुम बस तुम ही
रूह में बसे हुए हो
शिराओं में लहु की तरह
बहते रहते हो।
हर पल हर लम्हा
तो बोलो
तुमको क्या गुलाब दूँ
ओ मेरे मन मानस के
भीतर खिलते
नील गुलाब नाज़ुक से
तुम और मैं तो
हम बन चुके
अब तुमको क्या
गुलाब दूँ बोलो।
----डाॅ पल्लवी "गुंजन"