मैंने एक दिन
अपनी खामोशी को ओढ़नी की तरह ओढ़ा —
और लौट गया
उस पुराने आँगन की देहरी पर,
जहाँ कभी बचपन
कंचों की तरह खनकता था।
अब वहाँ
धूप भी अजनबी सी लगती है,
दीवारों से टकराकर
बिना कुछ कहे लौट जाती है।
एक बच्चा
मोबाइल की स्क्रीन में हँसी टटोलता है,
एक बूढ़ा
टीवी की आवाज़ में अपने आँसू छुपाता है।
कभी इस घर में
चूल्हे की आँच पर
रोटियाँ नहीं,
रिश्ते फूला करते थे।
अब गैस की नीली लौ
केवल भूख मिटाती है —
मन की नहीं।
हमने क्या किया?
ईंटों को इतना ऊँचा चुन दिया
कि छाँव तक की परछाईं
रिश्तों से कटी-कटी सी रहने लगी।
दरवाज़े बड़े किए,
पर दिलों की चौखटें
सिकुड़ती रहीं।
कमरे बहुत बना लिए,
मगर एक आँगन
जो माँ की हँसी से महकता था —
कहीं खो गया।
बच्चे अब
पंखों से पहले
दूरी माँगते हैं,
और हम…
अपने ही घर में
आँखों की नमी में
एकान्त तलाशते हैं।
काश! हमने
‘मैं’ के किवाड़ इतने सख़्त न किए होते,
तो शायद अब भी
किसी कोने से
माँ की पुकार
और पिता की हँसी
एक साथ सुनाई देती।
अब संस्कार
संस्कारों से नहीं,
सवालों से लड़ते हैं —
और जवाब
हर किसी की चुप्पी में
धुंध बनकर खो जाते हैं।
पर शायद…
हर धुंध के पार
एक सुबह ज़रूर होती है,
जहाँ कोई बच्चा
फिर से आँगन में हँसता मिलेगा,
और एक पिता
फिर से कह सकेगा —
“बेटा, घर लौट आ।
हमने अबके बार…
दरवाज़ा नहीं,
दिल खोला है।”
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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