ज़िंदगी को ज़िंदगी ही नहीं समझ सका ऐसा हमने समझा है, वसी
आँखें देखती है कायनात में हर चीज़ किसी का दिल की बात नहीं समझती है
हर ऐब से पाक ख़ामोश मिजाज़ लोग दूसरे को परख लेता है मिंटो में
आज़ ही के दिन 8 जिलहिज्जा 1982 को मेरे पिता जीवन छोड़ दिया
मेरी आंखों में पिता का चेहरा आता है वह मुझे देखते या नहीं कौन समझेगा
जिसने समझा मौत के बाद क्या हो रहा है उसके साथ उसपर खुदा का साया होता है
ज़िंदगी हम हैं चाहे जैसे गुजार दें यूहीं बेसबब इधर उधर गुजार देना अच्छा नहीं
ज़िंदगी पर नाचने वाले अधूरा होते हम हैं कि ज़िंदगी को अपने इशारे पर नचाते हैं
जो न समझा जीवन ,माता पिता और खुदा की हकीकत वह महज़ पुतला है
जमीं आसमां चांद सूरज और सितारे ऐसे मखलूक हैं जिसे कोई कुछ दे न सका आजतक
ज़ाहिर में बे जान मखलुक और जो देखने में नहीं वह खुदा देता है सभी जीव प्राणी को
वसी अहमद क़ादरी ! वसी अहमद अंसारी
मुफक्कीर मखलुकात! मुफक्कीर कायनात
लेखक ! कवि ! दरवेश ! 6 मई 2025