वह स्त्री, हाँ, वह घर की स्त्री!
धुएँ से काली चूल्हे की बाती,
जिसके उजाले में सब मुस्कुराते हैं,
पर जिसकी आग कभी किसी को न दिखती।
सुबह की पहली किरण से लेकर
रात के आख़िरी सपने तक,
वह चलती है—
एक अनवरत यात्रा पर।
सूरज की पहली किरण के संग
वह उठती है, थकी-हारी,
सपनों की गठरी को सिर पर रख
चौखट से बाहर क़दम बढ़ाती है।
कभी माँ, कभी बहू, कभी पत्नी—
हर किरदार निभाती है,
पर अपनी पहचान?
उसे ओढ़े रहती है
एक अनाम चादर की तरह।
रसोई की गंध में उसके अरमान जलते हैं,
आँगन की मिट्टी में उसके आँसू छिपते हैं।
सबके चेहरे पर हँसी लाने की कोशिश में,
वह अपनी थकान की कहानी भूल जाती है।
बच्चों की किलकारी उसकी जीत बनती है,
पर उसकी हार?
वह चुपचाप दीवारों में समा जाती है।
रात जब सब सो जाते हैं,
वह जागती है,
अपने कंधों पर पति की थकान उठाती।
उनकी आँखों में सुकून तलाशती,
अपनी आँखों के सन्नाटे को अनदेखा करती।
उसे अपनी नींद बेचने की आदत है।
समाज कहता है,
“वह देवी है, वह शक्ति है,”
पर वह यह नहीं देखता
कि हर देवी के भीतर
एक थकी हुई स्त्री रोती है।
वह देवी नहीं,
वह वह पिघलती हुई मोम है,
जो रोशनी लुटाने के लिए
खुद को मिटाती रहती है।
सुबह फिर वही चक्र शुरू होता है,
चूल्हा जलता है,
और साथ में जलती हैं
उसकी अनकही कहानियाँ।
ओ समाज!
क्या तू कभी उसकी मौन की चीख़ सुन पाएगा?
क्या तू उसके हाथों की लकीरों में छिपी
उसकी अधूरी जिंदगानी को देखेगा?
या वह हमेशा
सिर्फ़ एक अज्ञात बलिदान बनी रहेगी?
-इक़बाल सिंह राशा
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड