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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

मुकर गई

ये गर्दो–गुब्बार फिज़ा की, जो सीनों में भर गई..
तो बोझिल सांसों से, ज़िंदगी बे–इंतेहा डर गई..।

सहर का ये आफ़ताब, इतना धुंधला सा क्यूं है..
क्यूं सियाह पोशाक पहन शाम, आंखों में उतर गई..।

ये दिन भी मुझसे कोई, बहाना करके निकल गया..
रोते रोते फिर ये सदी भी, किसी तरह गुज़र गई..।

वक्त ने भी कैसी अज़ब चित्रकारी करी है देखिए..
जिस्म पर अब यहां वहां, नीली नसें सी उभर गई..

ज़िंदगी को बहुत कलेजे से लगाकर रखा ताउम्र मगर..
आख़िरी वक्त में वो नामुराद चंद सांसों के लिए मुकर गई..।

पवन कुमार "क्षितिज"




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (5)

+

Shiv Charan Dass said

बहुत खूब आखिर क्षितिज जो हैँ

Amit Shrivastav said

क्या ही मार्मिक और गहन रचना है — जैसे धुंध में लिपटी हुई सुबह की तरह — हर शेर एक थकी हुई सदी की आवाज़ लगता है

पवन कुमार "क्षितिज" said

रचना पसंद करने के लिया आपका आभारी हूं दोस्तो. 🙏😊

वन्दना सूद said

शानदार रचना 👌👌

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

आख़िरी वक्त में वो नामुराद चंद सांसों के लिए मुकर गई.. kya khoob likha hai Adarneey...

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