ये गर्दो–गुब्बार फिज़ा की, जो सीनों में भर गई..
तो बोझिल सांसों से, ज़िंदगी बे–इंतेहा डर गई..।
सहर का ये आफ़ताब, इतना धुंधला सा क्यूं है..
क्यूं सियाह पोशाक पहन शाम, आंखों में उतर गई..।
ये दिन भी मुझसे कोई, बहाना करके निकल गया..
रोते रोते फिर ये सदी भी, किसी तरह गुज़र गई..।
वक्त ने भी कैसी अज़ब चित्रकारी करी है देखिए..
जिस्म पर अब यहां वहां, नीली नसें सी उभर गई..
ज़िंदगी को बहुत कलेजे से लगाकर रखा ताउम्र मगर..
आख़िरी वक्त में वो नामुराद चंद सांसों के लिए मुकर गई..।
पवन कुमार "क्षितिज"