मैंने देखा —
छत की मुंडेर पर
एक थकी हुई चिड़िया बैठी थी,
जिसके पंख
यादों की राख से भरे थे।
वो न दाना चुगती थी,
न दिशा पहचानती थी,
बस बीते नीड़ों की गंध
हवा में टटोलती रहती थी।
कभी जहाँ
कथाओं की लौ से दीप जलते थे,
अब वहाँ
विचारों की बर्फ़ में
बूढ़े अनुभव
धीरे-धीरे पिघलते हैं।
पीढ़ियाँ अब
गति से तेज़ सोचती हैं,
पर सहने की कला
राह में ही भूल आती हैं।
माँ की हथेली —
जो कभी
मौन में भी मंत्र बोला करती थी,
अब थकी हुई लकीरों का
नक़्शा बन गई है।
पिता की चुप्पी —
अब निर्णयहीनता कहलाती है,
न कि तपस्वी मौन की साधना।
संवाद अब
शब्दों से नहीं,
संदेहों से होता है —
जहाँ हर उत्तर
तर्क के काँटे से नापा जाता है,
और प्रेम,
एक ‘समझौता’ बनकर
दरवाज़े की चौखट से लौट जाता है।
आँगन में तुलसी नहीं उगती अब —
केवल
प्लास्टिक के गमलों में
“समय की कमी” खिली होती है।
मैं चुप हूँ —
पर मेरी चुप्पी
एक ऐसा घाव है,
जो पीढ़ियों के कानों में
मौन की परछाईं
ओढ़ाता चला जा रहा है —
इस आशंका के साथ कि
हमारे बच्चों को शायद
हमारी कहानियाँ नहीं तो,
हमारी थकान ही याद रहे।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड