मैं यहाँ क्यों हूँ —
जब हर सुबह, एक शोर है
और हर रात, एक सज़ा।
मुझे किसने भेजा इस गुफ़्तगू की जेल में,
जब मेरी भाषा तो ख़ामोशी थी?
लोग कहते हैं —
“जियो, मुस्कुराओ, निभाओ रिश्ते”,
मगर ये नहीं कहते कि
मरती कैसे है रूह हर रोज़?
मुझे होना नहीं था
इतना पारदर्शी
कि लोग आर-पार देख सकें,
मुझे होना था —
एक धुंध…
जिसमें छिप जाऊँ अपनी ही धड़कनों से।
मैं बहुत अच्छा था —
इसीलिए टूटा,
मैं बहुत सच्चा था —
इसीलिए छूटा,
मैं बहुत मैं था —
इसीलिए अकेला रह गया।
अब सोचता हूँ —
काश कोई और होता मुझमें,
थोड़ा दुनिया जैसा,
थोड़ा कम मैं।