ज़िंदगी जान की बाजी है, शतरंज की बिसात थोड़ी है,
मरते दम तक लड़ना है ज़िंदगी, शह - मात थोड़ी है।
अधूरी ख्वाहिशें,टूटे सपने,कितना कुछ है दफन सीने में,
ज़िंदगी शान से जीना बुज़दिलों के बस की बात थोड़ी है।
मिलान-बिछड़ना ये तो सिलसिला है जन्मों-जन्मों का,
कहानी अधूरी है, तो फिर ये आखिरी मुलाकात थोड़ी है।
मैंने पिरोए हैं अपने आँसू, दर्द, ज़ख़्म इस ग़ज़ल में,
मुश्किल है इसको समझ पाना, खाली जज़्बात थोड़ी है।
मैं जब मर जाऊँ तो देखना मेरे जनाज़े की रौनक,
होंगे मेरे चाहने वाले, सिर्फ सगों की जमात थोड़ी है।
🖊️सुभाष कुमार यादव