इंसाँ तो गिरते रहे, और उठती रहीं दीवारें..
कांधों पर हाथ ही था, सच में कहां थे सहारे..।
तेरे दीदार के बाद ही, मालूम हुआ था हमको..
तुझ तक आती राहों में, बिछे हुए थे अंगारे..।
बात बात पे लगती हैं, अब बाज़ार में बाजियां..
कभी ज़माना हमसे, कभी हम ज़माने से हारे..।
इस बार कश्तियां, कहां लेकर आई है हमको..
ये अनजान सी फिजाएं और अज़नबी से किनारे..।
यूं तो उनकी निगाहें, हमारी ज़ानिब भी उठी थीं..
मगर कभी हुए ही नहीं, दिल के मुआफ़िक इशारे..।
पवन कुमार "क्षितिज"