न आप कभी मेरे पास आये,
न मैंने सिर उठाने की जुर्रत किया।
वक्त गुजरता गया, गुजरता गया ,
एक दूजे की याद लिए, जिया।।
वर्षों पुरानी वही मूरत लिए,
मैं घूम रहा हूं आप की सूरत लिए।
वक्त का पहिया यूं ही चलता रहा,
आप की याद का पैबंद ऐसे सी लिया।।
ज़ख्म भरा नहीं, हरा ही रहा,
स्मृतियां बिसरी नहीं, निखरी रहीं।
अभिलाषा मरी नहीं, जाग्रत ही रही,
जो कह न सके, बिन कहे कह दिया।।
यह संयोग भी कैसा अजीब है,
न आप दूर हैं, न हम करीब हैं।
तथ्य स्वत: परिलक्षित हो गया,
तो जज़्बात को विराम दे दिया।।
कृष्ण मुरारी पाण्डेय
[रिसिया-बहराइच]