तुम्हारे साथ मुझे जीने का स्वाद नहीं आया,
लबों पे हँसी थी, पर दिल कभी मुस्कुराया नहीं।
मैंने चाहा था खुद को तुझमें लुटा देना,
मगर तेरा दामन मेरी साँसों से भरा नहीं।
तूने हर रोज़ मुझे आईना दिखाया,
पर उसमें मेरा अक्स कभी नज़र नहीं आया।
मैंने तेरे हर कहे को खुदा की तरह पूजा,
पर तुझे मेरी इबादत का अंदाज़ नहीं आया।
मैंने ख़ुद को तेरी चाहत में गुम कर दिया,
पर तुझे मेरी ख़ामोशी का हिसाब नहीं आया।
तुम्हारे साथ मुझे जीने का स्वाद नहीं आया,
मैं जलती रही, पर कोई उजास नहीं आया।
तेरी बाहों में भी सर्द रातों की ठिठुरन थी,
इस मोहब्बत में इक भी लम्हा लिपटकर सुला नहीं पाया।
मैंने खुद को तेरी रूह में पिघलाना चाहा,
मगर तू संगदिल था, मेरा वजूद भी बहा नहीं पाया।
मैंने हर दर्द को ज़ुबान से चुप रखा,
पर आँखों में समंदर था, जो कभी सूख नहीं पाया।
तूने चाहा कि मैं सिर्फ तेरा साया बन जाऊँ,
पर मैं धूप थी, तेरा क़ैदख़ाना मुझे रास नहीं आया।
अब मेरी आँखों में न कोई शिकायत बची, न ग़िला,
क्योंकि इस इश्क़ का ज़हर भी मुझे मार नहीं पाया।
तू जीता रहेगा अपनी अधूरी फतह के गुमान में,
पर तेरे साथ भी मुझे जीने का स्वाद नहीं आया।