समयचक्र कितनी तेजी से घूमता है इसका अंदाजा लगाना नामुमकिन है पर सत्य तो यही है कि समयचक्र चलता अपनी ही गति से है, आज जब इस चक्र को देखता हूँ तो लगता है जैसे बस कल की बात हो ..... 15 अप्रैल 2019 , दोपहर का वक़्त था , ऑफिस मीटिंग चल रही थी कि फोन बज उठा, नज़र डाली तो नंबर अलका भाभी था…… भाभी का फोन और वह भी इस समय ,कुछ तो जरूरी बात होगी , क्योंकि असमय वो फोन नहीं करती थीं | मीटिंग समाप्त होते ही मैंने उन को काल किया, औपचारिकता के बिना ही हमने पूछा “ सब ठीक तो है भाभी”, जबाव में उन्होने कहा हाँ ..... शाम को घर आना कुछ काम है और फोन रख दिया | ऑफिस से निकलते-निकलते देर हो गयी ,सीधे आशीष भईया के घर पहुँचा, भईया- भाभी दोनों ही घर पर थे | बातों से पता चला कि भईया को कुछ दिनों से या कहें कुछ महीनों से मुँह मे छालों कि दिक्कत थी जिसका वो इलाज कर रहे थे, लगभग सब ठीक हो गए थे पर एक –दो बचे थे, जिनके कारण तकलीफ़ हो रही थी , और डॉक्टर ने ब्योप्सी कि सलह दी थी, इसी पर बात करने के लिए बुलाया था | बाहर से देखने पर ऐसा कुछ लग नहीं रहा था, पर उनको दिक्कत थी, ये उनकी बातों से महसूस कर सकता था | आशीष भईया उन उनमें से थे जो दूसरों के लिए तुरंत दौड़ पड़ते थे पर अपने लिए उतने ही बेपरवाह ! मस्त-मौला स्वभाव के मालिक थे ,बिलकुल ही जुदा ! , खैर ये तय किया कि किसी परिचित डॉक्टर से दूसरी सलाह भी ले ली जाये | मैने डॉक्टर गौरव से अगले दिन का समय लिया और घर के लिए निकाल पड़ा | दिमाग मे एक आशंका थी, पर उसको कल तक के लिए झटक दिया | अगली शाम भईया-भाभी के साथ डॉ गौरव से मिले उन्होने भी देखा और ब्योपसी कि सलह को उचित बताया, घर लौटते समय अगले दिन मेडिकल कॉलेज मे ब्योप्सी करवानी है ये बात तय हो गयी |
अगली सुबह भैया का फोन आया और उनके साथ ही मेडिकल कॉलेज के लिए निकला , वहाँ पहुँच कर प्रक्रिया पूरी की और वहाँ से हम अपने अपने ऑफिस के लिए निकाल गए | मेडिकल कॉलेज से तो निकल आया था पर मेडिकल कॉलेज दिमाग से नहीं निकल पाया था , एक अजीब से आशंका से दिमाग घिरा हुआ था, पर समझ नहीं आ रहा था की समझूँ कैसे ? आशंका तब और बढ़ गयी जब डॉक्टर ऋतिका का फोन आया , हालचाल के बाद उसने जो कहा उससे मेरी चिंता बढ़ गयी | तीन दिन इसी उपापोह मे गुजर गए और काम के सिलसिले से मैं लखनऊ के बाहर चला गया | 21 अप्रैल शाम को भईया ने अपनी ब्योप्सी रिपोर्ट व्हात्सप्प पर भेजी और फोन किया , उनसे बात कर तो रहा था पर समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ , क्योंकि आशंका सत्य साबित हो चुकी थी | बेफिक्र रहने वाले की आवाज़, आज फिक्र मे डूबी हुयी थी, लगभग एक घंटे की बातचीत में आगे क्या, कैसे, कब पर चर्चा होती रही, कुछ कहता उससे पहले ही भईया का व्हात्सप्प पर मैसेज आया कि राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट के डॉ दीवान से सोमवार शाम का समय ले लिया है और वो सुबह भाभी के साथ दिल्ली जा रहें हैं, चाहता था की अगली सुबह तक भईया लखनऊ में रुकें पर पता नहीं क्यों कह नहीं पाया |
23 अप्रैल को भईया का फिर वाहत्सप्प पर मैसेज आया जिसमे उन्होने लिखा कि डॉक्टर दीवान ने क्लीनिकली कन्फ़र्म कर दिया है पोस्ट एमआरआई मे स्टेज 3 निकला है और सर्जरी होनी है, तुम “भाभी से बात कर लो और convince करो”..... कल सर्जरी है | भाभी से क्या ही बात करता और क्या करता..... और कहता क्या ? 28 अप्रैल को दिल्ली मे जब उनसे मिला तो उनमे वही जोश था ,इशारों मे ही बात हुयी पर लग नहीं रहा था की वो कैंसर अस्पताल में हैं , कुछ समय बिताने के बाद जब वो लखनऊ लौटे तो घर पर मिलने गया , बोलने मे कुछ दिक्कत थी पर ठीक थे, इस बीच मै राजस्थान और फिर महाराष्ट्र चला गया ,फोन पर भाभी से हालचाल मिलता रहता था |
सोमवार 22 जुलाई , सुबह ही सिंधुदुर्ग पहुँचा था, आज लगभग 20 दिन हो चुके थे महाराष्ट्र मे काम करते-करते , खूबसूरत पहाड़ी जिला, पहाड़ और समुद्र का मेल , अच्छे लोग ,खुशनुमा माहौल , पर दिल और दिमाग दोनों शांत नहीं थे .... कुछ तो हो रहा था पर समझ नहीं आ रहा था, ट्रेनिंग खत्म करके होटल मे लौटा और रिपोर्ट लिखते लिखते ही सो गया , काम की थकान थी , समय का अंदाज नहीं पर शायद रात के पौने ग्यारह या ग्यारह बज रहे होंगें, नींद मेँ था, फोन लगातार बज रहा था , उठाया तो दूसरी तरफ भाभी की आवाज़ थी , बोली घर आ सकते हो भैया की तबीयत ठीक नहीं है, सांस लेने मे दिक्कत हो रही है, कहाँ ले जाएँ , आवाज़ मे घबराहट थी , मैंने मिडलैंड , सहारा बोला और बताया की बाहर हूँ ,बस फोन कट गया , घर से दूरी का मतलब क्या होता है इसका अंदाजा हो गया था, नींद की जगह चिंता सवार हो चुकी थी, लगातार फोन मिला रहा था ,सब को….. पर किसी से बात नहीं हो पा रही थी, दिल मे एक बैचैनी, घबराहट शुरू थी, दूर बैठ कर जो कर सकता था उसका प्रयास कर रहा था, इसी बीच फिर फोन बजा, अबकी बार विजय भैया का फोन था और जो वो कह रहे थे दिल- दिमाग उसको सुनने के लिए तैयार नहीं था ,मेरे बार बार माना करने के बाद भी भैया लगातार वही कह रहे थे, उनके कहे शब्द कान मेँ गूँज रहे थे “आशीष नहीं रहे”.................. अब कुछ नहीं था..... आखों से झरते आँसू बाहर होती बरसात मे अन्तर कम होता जा रहा था ...... आशीष भैया क्या गए मेरे रिश्तों मेँ से एक कड़ी छूट गयी..... हम कम ही मिलते थे पर जब भी मिलते थे लगता नहीं था कि बड़े भाई से मिल रहे हों , जितना भी समय बिताया वो एक-एक कर के आंखो के सामने आ रहे थे, ..... फिर सुबह होगी सब होंगे ....पर नहीं होगा तो मुस्कुराता हुआ वो चेहरा .........
आज जब उस पल को याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि काश उस रात लखनऊ मेँ होता ............... पर सोचा पूरा हो .........???