बड़ी उम्मीद से एक वीरान गलती तकता हूं,
जहां से कोई बारात नहीं चलती ||१||
दिन तो ढल जाते हैं, रहमदिल हैं बेवकूफ़,
पर कमबख्त रात नहीं ढलती ||२||
ज़माना तो खुद ज़माने का दुश्मन है,
पर तितलियां क्यों साथ नहीं चलतीं ||३||
खैर, आज भी एक वाकया लिख दिया,
और कल भी लिखा था,
न तो आज मेरे पास है और न ही कल थी ||४||