नंगे पाँव दौड़ा आया,
कच्ची पगडंडी से,
सपनों का बोझ उठाए,
कहाँ से… कहाँ तक आया।
धूप जली, धरती तपी,
फिर भी थका नहीं, रुका नहीं,
मन में कोई चाह जगी थी,
बस उसे पकड़ने चला आया।
कभी काँटे चुभे पाँव में,
कभी ओस ने ठंडक दी,
हर मोड़ पर उसने किस्मत से
बस दो कदम आगे बढ़कर दिखाया।
चप्पलें नहीं थीं,
लेकिन हौंसलों का बंधन भी नहीं था,
हवा से बातें करता वो
खुद को रास्तों का बेटा कह आया।
लोग हँसते थे उसे देख,
पर वो मुस्कुरा कर रह जाता,
उसकी मंज़िल तो कहीं दूर थी,
पर उम्मीद को हर रोज़ गले लगाता।
नंगे पाँव दौड़ा आया,
थका है, पर हारा नहीं,
कहता है—
ये रास्ता मेरा है,
और ये सफर भी मेरा साया।
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
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