"ग़ज़ल"
ज़रा तल्ख़ है समझने और समझाने में!
कोई किसी का नहीं इस ज़माने में!!
क्या मिला आ के तिरे मय-ख़ाने में!
डूब मरे ऐ साक़ी! तिरे पैमाने में!!
सच्चाई में ख़ुदा है ख़ुदा में सच्चाई है!
क्या रक्खा है फिर झूठे फ़साने में!!
हज़ारों साल की कोशिश मगर नाकाम रहा!
विधाता आदमी को इंसाॅं बनाने में!!
जो भी जाता है ख़ाली हाथ ही जाता है!
हालाॅंकि उम्र गॅंवा देता है कमाने में!!
नाम बनाने में ज़िंदगी गुज़र जाती है!
इक पल भी नहीं लगता उसे गॅंवाने में!!
हम दोनों अपनी कोशिशों में कामयाब रहे!
हम तुम्हें बनाने में तुम हमें मिटाने में!!
कौन कहता है कि सच्चाई मर चुकी है?
वो आज भी ज़िंदा है मिरे तराने में!!
हम भी क्या शिकवा करें उन से 'परवेज़'!
उन्हें मज़ा आता है हमें सताने में!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad