बाहर बहुत पीड़ा थी
इसलिए अंदर भागा
बाकी,
अंदर भागने का और कोई कारण न था।
बाहर ऐसी दलदल थी
काम था, क्रोध था
राग था, द्वेष था
मै था, मेरा था
दुःख की ऐसी लपेट थी
इसलिए अंदर भागा
बाकी,
अंदर भागने का और कोई कारण न था।
न भगवान की कोई कांक्षा थी
न परम की कोई लालसा थी
अज्ञान इतना गहन था की,
पंचामृत को ही अमृत समजते थे
मूर्ति को ही भगवान मानते थे
मोह-माया का जाल बड़ा कठीन था
इसलिए अंदर भागा
बाकी,
अंदर भागने का और कोई कारण न था।
कभी सोचा न था
तुम मिलोगे
दुःख-पीड़ा तिरोहित हो जाएगी
कभी सोचा न था
निश्चिंती के ऐसे बादल छाएँगे
अमृत की वर्षा होगी
मन निर्मल हो जायेगा
अंतःकरण निरामय हो जाएगा
हे भगवंत..
सब आपकी कृपा।
✍️ प्रभाकर, मुंबई ✍️