<br> जीवन अत्यंत मूल्यवान है। इसे समृद्ध होने के लिए विशिष्ट परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, जिन्हें जीवन की अनुकूल परिस्थितियाँ कहा जाता है। प्रत्येक प्राणी को समृद्ध होने के लिए ऐसी परिस्थितियों की जरूरत होती है, और प्रत्येक प्राणी की अपनी विशिष्ट अपेक्षाएँ होती हैं। एक समय था जब पृथ्वी पर डायनासोर विद्यमान थे। उस काल में परिस्थितियाँ उनके लिए अनुकूल थीं, जिसके कारण वे लाखों वर्षों तक समृद्ध रहे। उस समय तापमान और अन्य तत्त्व उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप थे। किंतु, बाद में किसी कारणवश परिस्थितियाँ उनके लिए प्रतिकूल हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप उनका पूर्ण विनाश हो गया। यह वैज्ञानिक सत्य है कि जीवन केवल अनुकूल परिस्थितियों में ही संभव है।<br> जब हम जीवन की समृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियों की बात करते हैं, तो प्रायः पर्यावरणीय आवश्यकताओं, जैसे सूर्य-किरण, जल, वायु और अन्य तत्त्वों, पर ही चर्चा होती है, जो जीवन की वृद्धि में सहायक हैं। तथापि, सामाजिक परिवेश भी जीवन की समृद्धि के लिए अत्यंत आवश्यक है। प्राणियों का अपने समुदाय में आचरण और अन्य समुदायों के साथ उनका व्यवहार, जीवन की समृद्धि के लिए उतना ही अपरिहार्य है जितने अन्य तत्त्व। यदि किसी समुदाय के प्राणियों का आचरण परस्पर प्रतिकूल हो जाए, तो यह उस समुदाय के विनाश का कारण बन सकता है। मानव सबसे अधिक सामाजिक प्राणी है। <br> वह सामाजिक परिवेश के बिना जीवित नहीं रह सकता, और उसके जीवन के लिए सामाजिक परिवेश का होना अत्यंत आवश्यक है। प्रश्न यह है कि क्या मानव समाज इन सामाजिक परिस्थितियों को संरक्षित करने में समर्थ रहा है, या वे क्रमशः लुप्त हो रही हैं? सामाजिक परिस्थितियों से तात्पर्य उन नियमों और मूल्यों से है, जो सामाजिकता के आधार पर जीवन को सतत् बनाए रखने में सहायक हों, ताकि एक मानव दूसरे के प्रति प्रतिकूल न हो और जीवन विनाश की ओर न बढ़े। सामाजिक आचरण में सत्यनिष्ठा, सत्य, नैतिकता और परस्पर सहयोग जैसे गुण शामिल हैं।सामाजिक परिवेश का अनुकूल होना जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है, किंतु आज का समाज पतन की ओर इस प्रकार अग्रसर है कि वह इन आवश्यक मूल्यों को त्याग रहा है। एक समय था जब झूठ बोलना सामाजिक परिवेश में अनुचित माना जाता था, क्योंकि नैतिकता जीवन का आधार थी। सत्य बोलना सामाजिक परिवेश के निर्माण के लिए अनिवार्य था, और सामाजिकता इतनी जीवंत थी कि झूठ बोलना अनैतिक समझा जाता था। झूठ बोलने वाले को समाज में तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था। प्रत्येक धर्म में सत्य बोलने पर बल दिया गया है; कोई भी धर्म झूठ का समर्थन नहीं करता। चाहे सबसे छोटा सामाजिक समूह हो, उसके नियमों में सत्य की उपस्थिति अपरिहार्य है। किंतु धीरे-धीरे झूठ ने मानवीय सामाजिक परिवेश में इतनी जगह बना ली है कि यह अब प्रतिकूल के बजाय अनुकूल होता जा रहा है। <br> आज हम जिस परिवेश का निर्माण कर रहे हैं, उसमें जीवित रहने की आवश्यक परिस्थितियों में झूठ अनिवार्य-सा हो गया है। यदि झूठ इसी प्रकार अपनी जगह मजबूत करता रहा, तो सत्य के पक्षधरों के लिए हमारा परिवेश प्रतिकूल होता चला जाएगा। पहले झूठ बोलने वाला विरला होता था, किंतु आज सत्य बोलने वाला दुर्लभ हो गया है। प्रश्न यह है कि क्या झूठ ने सामाजिक परिवेश में अपनी जगह पक्की कर ली है? यदि हाँ, तो जीवन का क्या होगा?यह तो कहने की बात है, किंतु वास्तविकता यह है कि हमें अपने परिवेश में जाकर देखना चाहिए कि समाज में झूठ ने कितनी गहरी पैठ बना ली है। यदि कोई व्यक्ति झूठ बोलता है, तो वह इतनी कुशलता से बोलता है कि उसके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं आती। यदि सत्य को देखना है, तो देखें कि सत्य बोलने वाला व्यक्ति कितना अकेला होता है, जबकि झूठ बोलने वाले का समाज में कितना दबदबा रहता है। यह विडंबना हमारे सामाजिक पतन को दर्शाती है।<br> सामाजिक परिवेश को यदि किसी धागे ने बाँध रखा है, तो वह है नैतिकता। समाज का अर्थ है आपसी व्यवहार, एक-दूसरे के साथ रहना और एक-दूसरे के प्रति उचित आचरण करना। यही समाज को जन्म देता है। इस व्यवहार को नियंत्रित करने वाले आदर्शों को नैतिकता कहते हैं। नैतिकता सामाजिक परिवेश को अनुकूल बनाने की कला है। किंतु आज नैतिक मूल्यों का ह्रास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि यदि यही स्थिति रही, तो नैतिकता सामाजिक परिवेश के लिए प्रतिकूल हो जाएगी। आधुनिक विश्व में धन का इतना बोलबाला है कि धन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धन संचय की होड़ ने नैतिक मूल्यों का पतन कर दिया है। आज हमने सामाजिकता के बजाय व्यक्तिगत जीवन को अधिक महत्व दिया है। निजीकरण को इतना बढ़ावा दिया गया है कि सामाजिकता उसके नीचे दबकर मर रही है। निजी व्यवसायों में नैतिकता का घोर अभाव देखा जाता है। प्रतिदिन समाचारों में निजी अस्पतालों द्वारा लोगों को लूटने की खबरें छपती हैं। शिक्षा का निजीकरण नैतिकता के लिए सबसे बड़ा खतरा सिद्ध होगा, क्योंकि इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र सामाजिकता के बजाय निजीकरण को अधिक महत्व देंगे। नैतिकता पर ही परिवार की नींव टिकी है, जहाँ पति-पत्नी के संबंधों में इसकी विशेष भूमिका है। किंतु आज व्यक्तिवाद का प्रभाव समाज की इस मूलभूत इकाई पर भी पड़ रहा है। पति की जगह अब 'दोस्त' ले रहा है, और विवाह के बजाय स्त्री-पुरुष बिना विवाह के साथ रहना पसंद करते हैं। आज जीवन में ऐसे मार्ग की खोज हो रही है, जो नैतिकता के बिना सुलभ हो। धीरे-धीरे नैतिकता प्रतिकूलता की ओर बढ़ रही है। अब माता-पिता का जीवन भी संकट में है। वृद्ध माता-पिता की देखभाल के लिए बच्चे आनाकानी करते नजर आते हैं। यह आवश्यक है कि घर से निकलते समय कागज-कलम साथ लिया जाए और यह संकल्प किया जाए कि दिनभर में कितने ऐसे मामले सामने आए, जिनमें नैतिकता का प्रतिकूलता में बदलता चेहरा दिखाई देता है। इसे नोट करना चाहिए। नैतिकता समाज की रीढ़ है। यदि यह कमजोर हो रही है, तो समाज अधिक समय तक खड़ा नहीं रह सकता। <br> धीरे-धीरे हमारा सामाजिक जीवन उस पथ पर अग्रसर हो रहा है, जहाँ सामाजिक मूल्यों को अनुकूलता के बजाय प्रतिकूलता में बदला जा रहा है। अब विचार करें: क्या आज के समाज में सत्य बोलकर जीवनयापन किया जा सकता है? क्या उच्चतम नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण जीवन जिया जा सकता है? आज की दुनिया में झूठ बोलना कितना सहज हो गया है? व्यभिचार कितना सुलभ हो गया है? आज जीवन का मूल्य केवल प्रलोभनों का पीछा करना बनकर रह गया है। लोग महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों, जिन्होंने नैतिकता को जीवन भर की साधना बनाया था, को आदर्श मानने से कतराते हैं। हम सामाजिक परिवेश को जीवन के लिए प्रतिकूल बनाने के लिए कलियुग को दोष देते हैं, किंतु इस संकट से क्या कलियुग समाप्त होगा या जीवन ही नष्ट हो जाएगा? आज जीवन को युद्ध से उतना खतरा नहीं है, जितना बदलते सामाजिक परिवेश से है, जिसमें जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियों को प्रतिकूल बनाया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा समाज बन रहा है, जो एक-दूसरे के शोषण पर निर्भर है। चालाकी, बेईमानी, झूठ, लालच, जमाखोरी, हेराफेरी और व्यभिचार अब जीवन की अनुकूल परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं। वे मूल्य, जो कभी राक्षसी प्रवृत्तियों का आधार हुआ करते थे, आज हमारे जीवन का आधार बन रहे हैं। जो लोग आज स्वयं को समाज का अगुआ मानते हैं, उनके जीवन में खोखलापन ही दिखाई देता है।<br><br></b>