कभी-कभी मन यह सोचता है कि आखिर असली धर्म क्या है?
क्या केवल मंदिरों में जाकर घंटियाँ बजाना ही धर्म है?
क्या केवल गुरुद्वारे में बर्तन धोना ही सेवा है?
या फिर घर-परिवार को सँभालना ही सबसे बड़ा धर्म है?
सच कहूँ तो धर्म न तो केवल बाहर है और न ही केवल भीतर। धर्म एक संतुलन है—जहाँ घर की जिम्मेदारियाँ भी पूरी हों और प्रभु की सेवा भी छूटे नहीं। धर्म का मधुर मार्ग वही है, जो परिवार और सेवा—दोनों को साथ लेकर चलता है।
परिवार—धर्म का पहला मंदिर
हम सब जानते हैं कि इंसान का पहला तीर्थ है उसका घर।
• माता-पिता हमारे पहले देवता हैं।
• बच्चों को संस्कार देना ही सबसे बड़ा हवन है।
• पत्नी/पति का सम्मान करना ही सच्चा व्रत है।
मनुस्मृति कहती है—“मातृ देवो भव, पितृ देवो भव।”
और महाभारत में यह स्पष्ट लिखा है कि माता-पिता की सेवा करना सभी तीर्थों की यात्रा करने से भी श्रेष्ठ है।
सोचिए, यदि घर में माँ-बाप उदास बैठे हों और हम मंदिर में जाकर दिया जला रहे हों, तो क्या भगवान प्रसन्न होंगे?
नहीं… भगवान तो सबसे पहले वहीं प्रसन्न होंगे, जहाँ माँ-बाप की आँखों में संतोष की चमक होगी।
बच्चों की परवरिश—सच्ची पूजा
बच्चे ईश्वर का दिया हुआ सबसे बड़ा उपहार हैं।
यदि हम बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं, उन्हें धर्ममार्ग पर चलना सिखाते हैं, तो यह वही सेवा है, जिसे शास्त्रों ने सर्वोच्च माना है।
भागवत पुराण कहती है—“संतान को धर्मपथ पर चलाना ही माता-पिता का सर्वोच्च कर्तव्य है।”
कबीर ने भी यही संकेत दिया—
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
बच्चों को किताबें पढ़ाना ही काफी नहीं है, उन्हें प्रेम और धर्म का मार्ग सिखाना असली सेवा है।
केवल धर्मस्थलों की सेवा क्यों अधूरी?
सेवा करना बहुत पुण्य का कार्य है। मंदिर में झाड़ू लगाना, गुरुद्वारे में बर्तन धोना, लंगर में रोटियाँ बेलना—यह सब ईश्वर को प्रिय है। लेकिन यदि उसी समय घर में माँ दवा का इंतजार कर रही हो, या बच्चा आपके साथ पढ़ना चाहता हो और आप उसे छोड़कर बाहर सेवा करने चले जाएँ, तो सेवा अधूरी रह जाती है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था—
“जिस गरीब की भूख तुम मिटा सकते हो, पहले उसकी सेवा करो। मंदिर में जाकर भगवान को प्रसाद चढ़ाना बाद में करना।”
भगवान वहीं हैं जहाँ इंसान की पीड़ा मिटती है।
जिम्मेदारियों से भागना धर्म नहीं
कभी-कभी लोग कहते हैं—“हम तो सेवा में लगे हैं।”
लेकिन सच तो यह है कि कई बार यह घर की जिम्मेदारी से भागने का बहाना भी बन जाता है।
गुरु नानक देव जी ने यही समझाया—
“घर बैठ कर कर्म करो, नाम जपो और वंड छको।”
यानी पहले घर में मेहनत से काम करो, ईश्वर को याद करो और फिर अपने श्रम का फल बाँटो।
धर्म का मार्ग घर से शुरू होता है और समाज तक पहुँचता है।
संतुलन क्यों आवश्यक है?
अगर हम केवल घर तक सीमित हो जाएँ, तो हम आत्मा को प्यासा रख देते हैं।
और यदि केवल धर्मस्थल तक सीमित हो जाएँ, तो परिवार को अधूरा छोड़ देते हैं।
संत रविदास कहते हैं—
“मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
यानी अगर मन और जीवन संतुलित है तो घर की कठौती में भी गंगा बहती है।
तुलसीदास भी कहते हैं—
“परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नाही अधमाई।”
संतुलन का मार्ग अपनाकर ही हम अपने परिवार और समाज दोनों का भला कर सकते हैं।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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