मयंक मंजिमा मैं रहा देखता,
क्षण क्षण प्रिय तुझे सोचता,
बैठा रहा झरोखे पर और,
आँखों में कट गयी सारी रात!
शब्द मधुर मात्र चार,
कर देंगे पूर्ण अभिसार,
चला यही स्वप्न नयनों में,
जब तक हुई नहीं फिर प्रात!
सरलता से लोचनों की जलधार,
कर जाती कज्जल रेखा पार,
अधरों पर आकर अटक गयी
क्यों?सीधी हृदय से निकली बात!
भावों को कहाँ मिला निर्वाण?
व्याकुल,व्यथित हैं मेरे प्राण,
खुलकर गिरने की प्रत्याशा में,
जागे केशों के पारिजात!!
मन हारूं,तन वारूं,
उर हारूं,जीवन वारूं,
शत बार मुझे स्वीकार प्रिय,
इस प्रेम के बदले मेरे रिक्त हाथ!!
- श्री विवेक चंद्र जी